प्रेरक प्रसंग - नरेन्द्र बबल ■
समाज को एकता के सूत्र में बांधना चाहते हो ? समाज को एकीकृत करने की अभिलाषा रखते हो ?
अरेSSS ! जाओ, क्यों मूर्ख बनाते हो ?
जबकि तुम अपने ही परिवार को बिखरा चुके हो। "तुम बात करते हो समाज को संगठित करने की ? तुम धूर्त हो और इतने बड़े धूर्त की अपने ही सगे भाई-बहनों को तुमने छला। सम्पति के लिए खून की नदियां बहा दीं और तो और अपने ही माता-पिता के तुम सगे नहीं हो सके। उन्हीं से तुम कहने लगे कि आपने मेरे लिए किया ही क्या है ?"
आप लोगों ने पैदा किया तो पालना-पोषना, पढ़ाना लिखाना आपकी ही ज़िम्मेदारी थी। कोई अहसान नहीं किया मुझ पर। और यह कह कर तुमने एक दिन उन्हें घर से बाहर सड़क पर निकाल दिया। अपने बच्चों से उनकी निन्दा करते रहे। उन्हें अपने दादा -दादी के नज़दीक फटकने भी नहीं दिया और आज बात करते हो समाज को बाँधने की।
'उसे धर्म की दुहाई दे रहे हो' ! अबे नासपीटे समाज को भी तो तूने ही बिखराया है। तूने ही तो समाज में ना-पाट सकने वाली गहरी खाईयां खोदी हैं। तूने ही तो छूआछूत का ज़हर घोला है। तूने नारी की अस्मिता लूटने में तो कभी छूआछूत नहीं की लेकिन किसी ने तेरी छाया तक को भी छू लिया तो तू अपवित्र हो गया और इस अपवित्रता से मुक्ति पाने के लिये तूने स्नान किये, डुबकियां लगाईं लेकिन तेरा मन कलुषित ही रहा।
और इस कलुषित मन से तू कितना भी माया-जाल रच ले, यह समाज कभी एक नहीं हो सकता। समाज को धर्मपरायण करने का विचार तो तू त्याग ही दे। वैसे भी तूने धर्म का तो अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए सदैव प्रयोग किया है। धर्म के सिद्धांतों और उसकी धारणाओं को तूने हमेशा रहस्य बनाकर रखा ताकि तेरी दुकानदारी चलती रहे। तेरी सात पुश्तें बैठ कर मौज करती रहें।
सच तो ये है कि तूने धर्म की कभी चिंता ही नहीं की यदि तूने धर्म की चिंता की होती, तो तू बर्बर लूटेरों से हाथ मिलाकर कर अपने ही भाइयों की हत्याएं नहीं करवाता। उन्हें अपनी संम्पतियों से बेदखल करवा कर उन्हें आतताइयों का ग़ुलाम न बनाता और बिडम्बना तो देख, एक दिन उन लूटेरों ने तूझे भी गुलाम बना लिया। तुझ से वो हर घिनोना कार्य करवाया जिसकी तू सपने में भी नहीं सोच सकता था।
तब तेरे दिमाग में बिखरे परिवार, बिखरे समाज को एकता के सूत्र में पिरोने का विचार आया लेकिन समाज को एकता के सूत्र में पिरोने का तेरे पास कोई मार्ग नहीं था। क्योंकि सारे मार्गों पर तो तूने गहरी खाईयां खोद कर, आग लगा दी थी।
परन्तु अचानक, तेरे दिमाग में धर्म का ख्याल आया क्योंकि तूझे मालूम था कि धर्म के आनुवांशिक अणु ( DNA) कभी समाप्त नहीं हो सकते। और ये धर्म के आनुवांशिक अणु तुरन्त सामाजिक कोशिकाओं का निर्माण कर लेंगे। और हुआ भी ऐसा ही, समाज कुछ - कुछ फिर एक होने लगा।
समाज में फिर एकता की लौ जलने लगी लेकिन धूर्त, तूने अपने वर्चस्व के लिए उस समाज की संस्कृति, संस्कार, परम्पराएं, रीति - रिवाज को बदल कर उसके इतिहास को निगल लिया। और थोप दिया, उस पर खुद का बनाया कपोल कल्पित इतिहास। लाद दी उस पर अपनी अवांछित परम्पराएं और धारणाएं लेकिन आज, तू फिर से गुलाम होने के कगार पर है।
इसलिए, आज तुझे फिर से, तुझे एक बार फिर से समाज की एकता का ख्याल आया है। आज तुझे फिर से विचार आया है कि धर्म के आनुवांशिक अणुओं का जो कभी नष्ट नहीं हो सकते। तू धर्म के नाम पर समाज को एक करना चाहता है।
"अरे मूर्ख पहले परिवार को एक कर। जहां दादा-दादी,चाचा-चाची, ताई-ताऊ, भैया-भाभी, भतीजा-भतीजी, सब एक छत के नीचे खुलकर हँस सकें। एक चूल्हे की बनी रोटी साथ बैठकर खा सकें। जहाँ सब सुख-दुःख मिलकर बाँट सकें।
है तुझमें इतना साहस ? है इतनी ईमानदारी ? है तू इतना सच्चा ? है तू इतना पवित्र ? कि परिवार के दबे कुचले परिजन को अपने बराबर सक्षम बना सके। यदि हाँ, तो जा, ये समाज भी अजेय - अभेदी होगा और धर्म का सूरज समस्त संसार को प्रकाशित करेगा।
"पौधा / वृक्षा रोपण करें - हरियाली बढ़ायें"