नेहरू की विचारधारा से जुड़ी स्मृतियों का केंद्र - दिल्ली में तीन मूर्ति भवन स्थित नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और लाइब्रेरी में देश के पहले प्रधानमंत्री रहे पंडित जवाहर लाल नेहरू की विरासत को संजो कर रखा गया है. यहां पंडित नेहरू के राजनीतिक जीवन, विचारधारा से जुड़ी स्मृतियां हैं. केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने नेहरू मेमोरियल सोसायटी को कांग्रेस मुक्त कर दिया है और उनकी जगह बीजेपी और दक्षिणपंथी विचाराधारा से जुड़े हुए लोगों को शामिल किया गया है. ऐसे में कांग्रेस के साथ-साथ नेहरुवादियों की चिंता है कि वैचारिक रूप से विरोध करने वाले लोग नेहरू की विरासत को कैसे संभालकर रख पाएंगे? (File Photo - नेहरू मेमोरियल)
1930 में हुआ तीन मूर्ति भवन का निर्माण - नेहरू मेमोरियल की पूर्व निदेशक मृदुला मुखर्जी ने कहा कि तीन मूर्ति भवन का निर्माण 1929-30 में हुआ था और यहां की लाइब्रेरी में मॉर्डन इंडिया के इतिहास से जुड़े दस्तावेजों का खजाना रखा गया था. देश की आजादी के बाद तीनमूर्ति भवन प्रधानमंत्री के रुप में पूरे 16 सालों तक जवाहर लाल नेहरू का निवास-स्थान रहा और वे अपने आखिरी वक्त तक यहीं रहे. 1964 में नेहरू के निधन के बाद तत्कालीन सरकार ने इसे नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और लाइब्रेरी में बदल दिया.
'राष्ट्रीय धरोहरों को राजनीतिक द्वेष से दूर रखें' - मुखर्जी ने कहा कि इस मेमोरियल में नेहरू से जुड़ी स्मृतियों, उनके जीवन और भारत की आजादी के आंदोलन से जुड़ी वस्तुओं को संजोया गया है. यहां जवाहरलाल नेहरू और उनके जीवन और कार्यों से संबंधित कागजातों व अन्य ऐतिहासिक दस्तावेजों को अर्जित कर संरक्षित व परिरक्षित करने का काम किया जाता है. उन्होंने कहा कि दुनिया भर के बुद्धजीवी और रिसर्च स्कॉलर यहां भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन, आधुनिक भारत और नेहरू की विरासत को जानने-समझने और अनुसंधान करने के लिए आते हैं. देश की एक बड़ी और अनमोल धरोहर है, जिसे राजनीतिक द्वेष से अलग रखा जाना चाहिए.
अपने लोगों को लाना चाहती थी सरकार: खड़गे - पिछले कुछ सालों में बीजेपी लगातार अलग-अलग मुद्दों को लेकर नेहरू और उनकी विरासत पर न सिर्फ सवाल उठाती रही है बल्कि हमलावर भी रही है. वहीं, अब नेहरू मेमोरियल से कांग्रेस नेताओं को बाहर कर दिया गया है, जिसके चलते सियासत गरमाने लगी है. कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस फैसले पर नाराजगी जताते हुए कहा है, 'ये दुर्भाग्य है कि सरकार हर फैसले को राजनैतिक नजरिये से ले रही है. ये फैसला सिर्फ इसलिए लिया गया क्योंकि वे पैनल में अपने लोगों को चाहते थे.
आजादी के आंदोलन की विरासत से हिंसक छेड़छाड़: मनोज झा - आरजेडी के राज्यसभा सदस्य और डीयू के प्रोफेसर मनोज कुमार झा कहते हैं कि नेहरू मेमोरियल में जो बदलाव हुआ है उसे मैं हिंसक छेड़छाड़ मानता हूं. ये लोग नेहरू के मिजाज को ही नहीं समझते हैं. इन्होंने छह साल से नेहरू की छवि को धूमिल करने की कोशिश की और इन्हें इतिहास की समझ भी नहीं है. ऐसे में वो कैसे नेहरू की विरासत को संभालेंगे. वह कहते हैं कि नेहरू मेमोरियल में बदलाव को मैं ओछी और बौनी हरकत समझता हूं. इस मेमोरयल में सिर्फ नेहरू ही नहीं बल्कि आजादी के आंदोलन के दौरान खतो-खिताबत, डॉक्यूमेंट, मोनोग्राफ, चिन्ह, न्यूज पेपर और तमाम इतिहास से जुड़े तथ्य उपस्थित हैं. ऐसे में वहां बिना गए सम सामयिक विषय पर किसी की पीएचडी पूरी होना मुझे असंभव लगता है.
कांग्रेस की विरासत नहीं है नेहरू मेमोरियल: बाल मुकुंद पांडे - अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय संगठन मंत्री डॉ. बाल मुकुंद पांडे ने कहा कि नेहरू मेमोरियल कांग्रेस की कोई विरासत नहीं है. नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री थे, उनके नाम पर मेमोरियल होने का मतलब यह नहीं है कि उनके वंशज या फिर उनके ही विचारधारा के लोग ही वहां काबिज रहें. यहां नेहरू का विरोध व्यक्ति के तौर पर नहीं बल्कि विचारधारा और चिंतन के तौर पर होता है. आदमी तो बस प्राणी है और बुद्धि काम कर रही है तो मुद्दों पर विरोध होता है और सपोर्ट होता है. नेहरू मेमोरियल को पीएम गैलरी के तौर पर बनाया जा रहा है, जहां सारे प्रधानमंत्रियों के बारे में लोगों को पढ़ने और समझने का मौका मिलेगा. ऐसे में इसका विरोध किया जाना उचित नहीं है.
'सभी संस्थानों का गुजरात जैसा हाल कर रही सरकार' - वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन कहते हैं कि देश के संवैधानिक संस्थानों पर अपने करीबी लोगों को बैठाने के बाद अब सरकार की नजर नेहरू मेमोरियल जैसे तमाम संस्थानों पर है. इन्होंने गुजरात में भी ऐसा ही किया है, जिसका नतीजा है कि पिछले 20 साल में गुजरात से कोई रिसर्च पेपर देश या दुनिया में प्रकाशित नहीं हुआ है. ऐसा ही हाल अब देश का करना चाहते हैं. वह कहते हैं कि नेहरू मेमोरियल दिल्ली में पढ़ने-लिखने के लिए नए किस्म का सेंटर स्थापित किया गया है. हम तो यहां 1980 से जाते रहे हैं. लेकिन इसे अब राजनीतिक शिकार बनाया जा रहा है. हालांकि इसे पहले देश के प्रधानमंत्रियों के लिए बनाया जाना था, पर इसे नेहरू के नाम पर बना दिया गया. इतना ही नहीं इसे नेहरू से ज्यादा कांग्रेसीकरण किया गया. फिर भी हम कहेंगे कि उस समय कुछ हद तक जो सदस्य बनाए गए थे उनका एक स्तर था, लेकिन मौजूदा जो सदस्य आए हैं उनका तो एकेडमिक से कोई नाता ही नहीं है. ऐसे में वो क्या करेंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता है.
'नेहरू को अप्रासंगिक बनाने की कोशिश' - वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं कि मोदी सरकार जब से सत्ता में आई है, उसकी यही कोशिश रही है कि कैसे जवाहर लाल नेहरू को देश में अप्रासंगिक बनाया जाए. यही वजह है कि नेहरू मेमोरियल में नेहरू की विचारधारा वाले लोगों को बाहर कर ऐसे लोगों को शामिल किया गया है जो बीजेपी के नजरिए से देश और नेहरू को देखते हैं. हमें लगता है कि इसके जरिए ये नेहरू की कमियों को सामने रखकर उनकी छवि को धूमिल करने का काम करेंगे. लखनऊ विश्वविद्यालय के राजनीतिक प्रोफेसर डॉ. दिलीप अग्निहोत्री कहते हैं कि नेहरू मेमोरियल में बदलाव को वैचारिक विरोध के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए. हमारे लिहाज से उन्हें मौका दिया गया है तो उनके काम को देखा जाए और उसके बाद ही कोई टिप्पणी की जानी चाहिए. देश में जिन लोगों का भी योगदान है, उनके लिए राजनीतिक विचाराधारा और पार्टी से ऊपर उठकर काम किया जाना चाहिए. कांग्रेस अगर उनका बचाव नहीं कर पाई है और अगर कोई करना चाहता है तो उसे मौका मिलना चाहिए.